Tuesday, August 2, 2011

मंजिलें और इमारतें


दोस्तों,

यह कविता मैं आप सबके साथ बाँट रहा हूँ.
ब्लॉग पैर यह मेरी पहली कविता है.
पिछले साल मैंने अपने करियर की शुरुवात की.
पुणे  मैं जब मैं आया तो साइबर सिटी मगरपट्टा देख के मेरे होश उड़ गए.
वहीं से जन्मी  यह कविता.
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मंज़िलें और इमारतें  

खिड़की से बाहर देख रहा हूँ,
ऊंची ऊंची इमारतें,
अपनी ज़िन्दगी देख रहा हूँ,
ऊंची ऊंची मंजिलें 

फर्क क्या है ! इमारतों और मंज़िलों में ?
हमारी कल्पना का प्रतिबिम्ब हैं इमारतें.
फर्क क्या है ! इमारतों और मंजिलों में ?
हमारी मंज़िलों का मुक़ाम हैं इमारतें.

ज़िन्दगी में अपनी झांको ,
मज़दूर लगे हैं अरमानों के ,
बन रही हैं इमारतें
मेहनत, लगन, ईमान हैं खम्बे 
बन रही हैं इमारतें.

इंसान का दिल फौलाद भरा है,
जिस दिन यह जाग जाएगा
पहुंचेगा मंज़िल आगे, सजदा करेंगी इमारतें.
                                                                    --- संकल्प सक्सेना 

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