Sunday, February 19, 2012

कोई दोस्त है न रक़ीब है ----जगजीत सिंह




.कोई दोस्त है  रक़ीब है,तेरा शहर कितना अजीब है....इस पूरी ग़ज़ल को सुनते हुए लगा जैसे किसी   दरगाह  परकिसी पीर की मज़ार पर , किसी संत की समाधी पे या उनके चरणों  में या अपने गुरुदेव के चरणों में हूँ ...उनके एकदम समीप  हूँ.यहाँ  कोई दोस्त है  दुश्मन है.उनके इस शहर में अर्थात अध्यात्मिक ज्ञान की इस दुनिया में डूबे हुए सभी लोग दोस्ती और दुश्मनी की तुच्छ सोच से परे हैं.वह इन शब्दों के जाल को तोड़ चुके हैं.लेकिन मेरे जैसे अज्ञानी की नज़रों में यह बड़ी ही अजीब बात है.
२. वह जो इश्क़ था वह जूनून था,ये जो हिज्र है ये नसीब है......जब मुझे उनसे इश्क़ हुआजब मेरी नज़रें उनसे चार हुईं तो यह इश्क़ जूनून में परिवर्तित हो गया .यह जूनून एक तरह का पागलपनएक प्रकार की दीवानगी है जहां इंसान इतना खो जाता है की उसे अपने आप की सुध नहीं रहतीयहाँ उसही जुनून की बात की गयी है जो अक्सर मीरा और कबीर के प्रेम में नज़र आती है.यह जो जुदाई जका आलम है ....विरह में तड़प रहा हूँ ,यह मेरा नसीब है,मेरी ख़ुशनसीबी है.इसमें बहने वाले आँसू आनंद के प्रतिक हैं जिसमें डूबते डूबते इंसान पूर्ण रूप से धुल जाता  वह एकदम पवित्र हो जाता है.यह मेरा नसीब है की मुझे उनमें डूबने मौका मिला जो शायद बिरलों को ही नसीब है.
३. यहाँ किसका चेहरा पढ़ा करूं,
यहाँ कौन इतना करीब है
....हर इंसान के जीवन में एक तन्हाई है,जुस्तजू है . यहाँ चेहरा पढने का अर्थ पढने से नहीं है बल्कि उसमें डूबने से है . यह डूबने वाला चेहरा केवल गुरु/संत/पीर का ही हो सकता है.यह तलाश गुरु के दिव्या तेज की है क्योंकि वे ही सब सबसे अधिक करीब हैं.बाकी सारे रिश्ते नाते मोह माया के जाल हैं.अंत तक साथ दे ऐसा कोई नहीं.जो नसीब वाला है उसे ही दूरी नसीब हुयी है...विरह में तड़प रहा है...ज्ञान की ओर सत्पथ पर अग्रसर है .इसलिए दुसरे शेर को फिर पढ़िए और आध्यात्म की गहराईयों में गोते लगाईए.
४. मैं किसे  कहूं  मेरे साथ चल,यहाँ सब के सर पे सलीब है.......इस नश्वर संसार में मेरा अंत तक साथ देने वाला कोई नहीं है.में किस से उम्मीद करून साथ की सब ही सांसारिक जीवन जाल में बुरी तरह से जकड़े हुए हैं.केवल गुरु ही मेरा साथ दे सकते हैं क्योंकि गुरु भी वही होता है जिसके सर पे सलीब हो.यहाँ सलीब (ज़िम्मेदारी/बोझ/तड़पउस दिव्या ज्योति से साक्षात्कार का है.जब बात साक्षात्कार की हो सलीब भी परमानन्द में तब्दील हो जाता है.वोसे देखा जाए तो सलीब एक नकारात्मक सहबद है लेकिन गुरु की सकारत्मक उर्जा के आगे यह सलीब ही परमानद है.मेरा सलीब अर्थात गुरु की तलाश है....वो मिलें तो सलीब परमानन्द हो......

शोर है ,शांति है, यही  तो साहिल की ख़ूबसूरती है
हैं तो अंदाज़ दोनों के जुदा,फिर भी अजीब सी दोस्ती है
                                                           -----संकल्प सक्सेना ।

मुझे धुप से बक्श मेरे मौला,आरज़ू नहीं है छांव की

नूर-ए-आफ़ताब बर्सादे अब ,बनू छांव जहान की  
                                           __संकल्प सक्सेना