Saturday, January 4, 2014

कुछ तो है जो आँख भींचे, ख़ींच कर लाता मुझे
और तेरी महफ़िलों में, छोड़ कर जाता मुझे।

आज तेरे रास्तों पर, बढ़ रहे मेरे क़दम
और उस रूहानियत में, छोड़ कर जाता मुझे।

जो समय कि बंदिशों के, पार है बैठा उधर,
वो समय के रास्तों पर, छोड़ कर जाता मुझे।

अनगिनत प्यालों के शीशे, जो हैं बिखरे राह में
य़ाद में  उन महफिलों की, छोड़ कर जाता मुझे।

तुम भले हो दूर कितने, फिर भी मैं हूँ देखता
एक किरन के रास्ते जो, छोड़ कर जाता मुझे।

झील है तेरी निग़ाहें, जिस में जग है डूबता
नाख़ुदा बन पार उसके, छोड़ कर जाता मुझे।

तेरे संग-ओ-दर पे है, इस आस पर बैठा 'मुरीद'
कौन है जो इस किनारे, छोड़ कर जाता मुझे।
                                         ___ संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।
 

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