Monday, September 11, 2017


जाने कहाँ

ग़ज़लें जाने कहाँ खो गईं, नज़्में जाने कहाँ खो गईं 
जीवन के इन दो राहों पे, शामें जाने कहाँ खो गईं। 


आँधियारों से रोज़ लड़ाई, परवाने का खेल हो गई
खोज रहा था वो मंज़िल को, राहें जाने कहाँ खो गईं।

दूर नज़र आई वो मुझको, आहें जाने कहाँ खो गईं
वो जब मेरे पास खड़ी थी, सांसें जाने कहाँ खो गईं।

घड़ी जो करती टिक टिक टिक टिक, ख़ामोशी कि जुबां हो गई
यादों की मौजों में बहकर, रातें जाने कहाँ खो गईं।

दर पे तेरे खोए थे हम, धड़कन जाने कहाँ खो गई
रमा हुआ था 'मुरीद' तुझ में, बज़्में जाने कहाँ खो गईं।

__संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।

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