अब तो सहराओं की, ये रात मुबारक़ तुमको
ये अंधेरे ये ख़यालात, मुबारक़ तुमको ।।
जाल ये कैसा बुना है, हमें उलझाने का
ये सियासत, ये सवालात मुबारक़ तुमको ।।
अपने माज़ी में ज़रा, झांक कर देखो पल भर
ये विरासत में मिली मात, मुबारक़ तुमको ।।
यमन से आए लुटेरों ने चमन लूटा था
हमारे अपनो का ही हाथ मुबारक़ तुमको ।।
हुए यतीम कई घर, वतन की राहों पर
आग से जलते, ये हालात मुबारक़ तुमको ।।
अरे ! ओ मुल्क़ के रहबर, 'मुरीद' क्या लिक्खें
सहर की आस के जज़्बात, मुबारक़ तुमको ।।
© संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।
10/10/2018 04:51 A.M.
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